स्वतंत्रता के
बाद पीछले पैंसठ सालों में गुजरात के कुल मीलाकर सौ लोगों को भारत सरकार ने
पद्मभुषण, पद्मविभुषण और
पद्मश्री के खिताब दिए. इन सौ लोगों में एक भी शख्श दलित, आदिवासी, पीछडा (बक्षी
पंच), मुसलमान, ख्रिस्ती नहीं
है. अर्थात गुजरात के सत्तर फिसदी लोगों में से एक भी आदमी इतने सालों में इन
खिताबों का हकदार नहीं था. सरकार कांग्रेस की हो या बीजेपी की, किसी ने भी
गुजरात के बहुजन समाज के लोगों को इस तरह के राष्ट्रीय सन्मान के हकदार नहीं माने.
गुजरात में
दलितों के नेता जैसे कि वालजीभाई पटेल, रमेशचंद्र परमार, आदिवासियों के
नेता वसावा या मानव अधिकार आंदोलन के प्रहरी गीरीश पटेल जैसे लोगों को ऐसे खिताबों
के हकदार कांग्रेस ने नहीं माना होगा, क्योंकि वे कभी कांग्रेस के चाटुकार नहीं
रहे, ऐसा हम मानते हैं. पर पूरी जिंदगी दलित आंदोलन में हिस्सा लेने के बाद
कांग्रेस में जानेवाले प्रविण राष्ट्रपाल को भी ऐसा खिताब देने में कांग्रेस को क्या
एतराज है? और एहसान जाफरी,
जो कभी समूचे अहमदाबाद का प्रतिनिधित्व करते थे, उन्हे भी केन्द्र सरकार ने ऐसे
सम्मान से नहीं नवाजा.
बीजेपी ने
दलित-आदिवासी-पीछडों का इस्तेमाल किया, मगर उसने भी एनडीए के कार्यकाल में गुजरात
के बहुजन समाज के किसी प्रतिनिधि को ऐसे खिताब देने के बजाय उंची जातिओं के लोगों
को ही प्राधान्य दिया था. दलित पत्रकारीता तथा इतिहास में जिन्हो ने अच्छा काम
किया है, वैसे पी. जी. ज्योतिकर को विश्व हिन्दु परिषद अभी इस्तेमाल कर रही है,
मगर ज्योतिकर को ऐसा सम्मान ये लोग कभी नहीं देंगे, ऐसा हमारा दावा है. हम ऐसे
सम्मान को राष्ट्रीय सम्मान कैसे मानेंगे, जो अभी भी सवर्णों की बपौती है?
महाराष्ट्र,
पंजाब या देश के अन्य प्रदेशों में क्या स्थिति है, यह हम जानना चाहते हैं. क्या
बहेनजी ने उत्तर प्रदेश से किसी दलित को ऐसा सम्मान मीले ऐसा कोई प्रयास किया था? (अब आप मुझ ऐसा मत कहेना कि "हम ऐसे बामनवादी सम्मानों में नहीं मानते")
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