थानगढ के दलित विद्रोह को (अंग्रेजी
अखबारों को छोडकर) गुजराती मेइन स्ट्रीम मीडीया ने नजर अंदाज किया. एक लाख लोग
इकठ्ठा हुए और मीडीया ने चुप्पी साधी. 1981 में आरक्षणविरोधी आंदोलन में पांच लोग
इन्कमटेक्स सर्कल के पास "आरक्षण हटावो, देश बचावो" के बेनर लेकर खडे रहते थे और अखबारों में फ्रन्ट पेइज पर
पांच कोलम का फोटो छपता था. हमें इस बात का कोई अफसोस नहीं है. मीडीया चाहता है कि
दलित विद्रोह कांग्रेस या बीजेपी के नेतृत्व में ही पनपना चाहिए. मीडीया की ये
प्रकृति हम जानते हैं. मगर, जो लोग दलित पत्रकारत्व का एजन्डा लेकर खडे हैं, वे
क्या लिख रहे हैं, एक नज़र उन पर भी डालें.
'नया मार्ग' (ता. 16 अक्तुबर, 2012) ने
थानगढ के दलित महा संमेलन के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा. सोनिया गांधी की
राजकोट सभा को उन्हो ने ऐतिहासिक बताया. क्या 'नया मार्ग' के गांधीवादी तंत्री इन्दुकुमार
जानी को आंबेडकर के बेटों और बेटियों का इस तरह बडी तादाद में इकट्ठा होना अच्छा
नहीं लगा? 'समाज सौरभ' राजकोट से प्रसिद्ध होता है. उसने थानगढ हत्याकांड का
पुलिस वर्झन जैसा का तैसा लिख दिया. राजकोट थानगढ से सिर्फ चालीस किलोमीटर की दूरी
पर है. समाज सौरभ के तंत्री ने थानगढ जाकर सच्चाई का पता लगाना मुनासिब नहीं समजा.
'दलित
अधिकार' ने
थानगढ पर बहुत सुंदर विशेषांक निकाला. मगर उसमें भी एक लेख में समाज सौरभ की तरह घटना का
पुलिस वर्झन ही लिख दिया, जिसे पढ़कर लगता है कि फायरिंग उचित था.
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