इस प्रकार मारा था दलित बच्चों को मोदी की पुलीस ने
राजेन्द्र वाढेल
22
सितम्बर, 2012. पुलिस गोलीबार में
तीन दलित युवक के मृत्यु के समाचार से समग्र गुजरात के दलित समाज को वज्रघात का
अनुभव हुआ. मरनेवाले दोनो तरुण मात्र 16 और 17 आयु के थे और अपने माता-पिता के
इकलौते संतान थे ये जानकर सभी का ह्रदय कांप उठा. इस घटना के खिलाफ कोई ना कोई प्रत्याघात
देना ही होगा ये सोचकर राजुभाई ने 23 तारीख को लाल दरवाजा, सरदार बाग
में 'सबक संमेलन' के नाम से
कर्मशीलों की बैठक बुलाने का निर्णय लिया. सरदार बाग
में सौ से भी ज्यादा कर्मशील मित्र उपस्थित रहे. जिसमें डॉ. श्यामल पुराणी, निवृत
आई. पी. एस. और 'ओबीसी अवाज' के तंत्री
अंबालाल चौहाण, 'अनहद' के वकार
काजी, पत्रकार तनुश्री गंगोपध्याय, स्टेट बेंक युनियन के रमणभाई वाघेला, राकेश
प्रियदर्शी, भीमावा, के. डी. परमार, चिराग राजवंश, होझेफा उज्जैनी, महेश जी.
परमार, उमेश सोलंकी, जिग्नेश मेवाणी वगैरह उपस्थित थे.
थान में
हुए भयानक पुलिस दमन का तीव्र विरोध होना चाहिये इस बात से सभी सहमत थे. "गुजरात में
2002 में मुस्लिमों पर दमन गुजारनेवाले लोगो ने अब दलितों पर दमनचक्र शुरू किया है," इस बात को
रखते हुए राजुभाई ने कहा कि, 25 तारीख को थान में एक टीम जानी चाहिये और 2 अक्टूबर
को 'चलो थान' का कोल
देना चाहिये. सभा में उपस्थित सभी कर्मशील 'चलो थान' के कोल से
सहमत हुए. 25 तारीख को सुबह आठ बजे राजु सोलंकी, के. डी. परमार, महेश चौहाण, महेश
जी. परमार, गीरीश भीमावा, गुणवंत राठोड, तनुश्री गंगोपध्याय, राजेन्द्र वाढेल, डी.
के. राठोड, नारणभाई एम. वाघेला की टीम थान जाने के लिये रवाना हो गई. दूसरी तरफ,
सरदार बाग की मीटींग के प्रत्याघात पड चुके थे. उसी दिन अमदाबाद के एनएक्सी में
कांग्रेस ने भाजपा को छोडकर बाकी संगठनों की एक सर्वपक्षीय बैठक का आयोजन भी कर
डाला. थान के मामले पर राजकीय रोटी सेकने के लिये कांग्रेस बेकरार थी. इसलिये उसने
'चलो गांधीनगर' का कोल
दिया. कांग्रेस के लिए तो हर हालत में गांधीनगर जाना है. परन्तु हमें तो थानगढ में
समग्र समाज को एकत्रित करना था. इसलिये हमने 'चलो थानगढ' का कोल
दिया. हमारा कार्य इतना आसान भी नहीं था.
थान पहुंचे
तब चारों तरफ स्मशानवत् शांति थी. चिडिया भी पंख नहीं मार रही थी. गलीओं, शेरीओं
के नुक्कड़ पर खाखी वर्दीवालो के अलावा कोई नजर नहीं आ रहा था. हम रेल्वे फाटक पर
पहुंचे. अखबार में इसी फाटक की तस्वीर छपी थी. फाटक की एक तरफ सवर्ण और दूसरी तरफ
दलित. जैसे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान. सामाजिक समरसता का ढोल फट रहा था. फाटक के बगल
में अभी भी दलित युवक के खून के निशान पडे थे. ता. 21-9-12 के दिन मेले में दलितों
और भरवाडों के बीच सामान्य बोलचाल हुई थी. और सत्तावालों ने मेला बंद करवा दिया.
रात के साढे बारह बजे धोलेश्वर महादेव के मंदिर के पास पीएसआई जाडेजा और पुलिस रात
के अंधेरे में छुप के बैठे थे. उन्होंने मेले से वापस आते लोगो पर अंधाधुंध
गोलीबार करना शुरू कर दिया, जिसमें पंकज अमरसिंह सुमरा घायल होकर नीचे गिर गया.
उसे सीवील में इलाज के लिये ले जाया गया, परन्तु वहां उसकी मृत्यु हो गई. इस घटना
की जानकारी दलित समाज को होते ही दलित पुलिस स्टेशन रजूआत करने के लिये जा रहे थे.
रेल्वे फाटक के पास पुलिस हथियारों के साथ उनका स्वागत करने के लिये तैयार ही थी.
जाडेजा ने कहा कि, तुम लोग रजूआत करने जाओगे तो तुम्हें जान से मार डालेंगे.
पुलिस के
अचानक गोलीबार करने से राहुल वालजीभाई राठोड और प्रकाश परमार दोनो घायल हो गये.
उन्हे इलाज के लिये सीविल होस्पीटल ले जाया गया. 28-29 अगस्त को जाडेजा की बदली का
ओर्डर आ गया था. परन्तु जाडेजा के खिलाफ की गई सभी अर्जीओं पर कलेक्टर ने ध्यान
नहीं दिया. परिणाम स्वरूप जाडेजा ने जानबूझकर तीन निर्दोष दलित युवको की हत्या की.
घायल दलित युवकों को तात्कालिक राजकोट की सीवील होस्पीटल ले जाया गया. लेकिन गंभीर
चोटों के कारण होस्पीटल में ही उन्होने दम तोड दिया. घटना की जानकारी मिलते ही
दलित समाज के छोटे बडे सभी आगेवान राजकोट पहुंच रहे थे. भाजप को रफा दफा करने की उतावल थी,
तो कांग्रेस इस घटना को उछालने फिराक में थी. घटना से व्यथित बने दलित अग्रणीओंने लाशों
को लेकर सुबह राजकोट के आंबेडकर चोक में धरणा करने का निर्णय लिया था. परन्तु एक
ही रात सारी बाजी पलट गई थी. गुजरात सरकार के दो
मंत्री फकीरभाई वाघेला और रमणभाई वोरा राजकोट की सीवील होस्पीटल में पहुंच गये थे.
उन्होने मृतकों के परिवारों को दो लाख की सहाय और जेल में बंद आठों दलितों को
छुडवाने तथा जिम्मेदार पुलिस के खिलाफ एक्शन लेने का वचन देकर मृतकों के परिवारजनों
को थान जाने के लिये रवाना कर दिया. सुबह अखबार में जब यह समाचार आया कि, व्यथित
दलितजन राजकोट के आंबेडकर चोक में लाशो को रखकर धरना करनेवाले है, उसी समय थानगढ
में लाशों को अग्निदाह देने की तैयारी शरू हो गई थी.
25 तारीख
को हम जब पहुंचे तब 'नरेन्द्र मोदी के
राज में दलित समाज भय के साये में' ऐसे नारें पुकारती
हुई थान की दलित महिलाएं थान की गलीयों में घूम रही थी. हम सब प्रथम पंकज सुमरा के
घर गये. वहां बैठे लोगों के समक्ष राजुभाई ने हमारा परिचय देते हुए कहा कि, हमें
इस बात का दु:ख है कि आजादी के इतने सालों क बाद भी
दलितो-शोषितों की स्थिति ज्यों की त्यों है. उन्होंने बाबासाहब के विचारों को रखकर
और गुजरातभर में विविध स्थानों पर हुए पुलिस दमन को बयां करते हुए दलितों से अपील
की कि, हम चुप बैठे रहेगें तो इस तरह के अत्याचार बढते रहेगें. उन्होने अत्याचार
के खिलाफ अवाज उठाते हुए कहा हमें यहां 2 अक्टूबर को समग्र गुजरात के दलितों को एकत्रित
करके इन जुल्मियों को चुनौती देंगॉ और सरकार को हमारी मांगों के बारे में वाकिफ करेंगे.
उसके बाद
हम प्रकाश और मेहुल के घर गये. वहां लोगो की संख्या थोडी ज्यादा थी. वहां राजुभाई ने
राजकोट में विद्यार्थियों के उपर हुए पुलिस दमन के बारे में बताया. थोराला में
दलित माताओं पर हुए निर्मम लाठीचार्ज की तस्वीरें बताई. 'चलो थान' कोल के बारे
में बात की. उसी समय कांग्रेस के कुछ आगेवान थान में आये और कहने लगे राजकोट में
हमने नक्की किया था कि, लाश को हम सुबह डॉ. आंबेडकर चोक लायेंगे. एक ही रात में ऐसा
क्या हुआ कि आप लोग थानगढ में लाश को लेकर आ गये. कांग्रेस को लाश से राजकरण खेलना
था और भाजपा मामला रफा दफा करने की ताक में थी. उसी समय सभा में उपस्थित वालजीभाई
(मेहुल राठोड के पिता) ने हाथ जोडकर कहा "हमारे
बच्चें थे, उनकी लाश हम लेकर आये थे, अब आपको हमें फांसी पर चढाना हो तो चढा दो." इतना कहते
ही उनकी आंखे नम हो गई. इस घटना के तुरंत बाद अन्य बैठक में उपस्थित लगभग दो हजार
दलित भाई-बहेनों की सभा में राजुभाई ने कहा, "क्या आप मेरे कोल सहमत हो? मेरा कोल
है 'चलो थान.'"
इतना बोलते ही वहां उपस्थित सभी लोगो ने हाथ उंचा करके कहा, 'चलो थान'.
इस तरह, 'चलो थान' के कोल ने
सबसे पहले समग्र थान को एक किया बाद में एक हुए थान ने समग्र गुजरात को एक किया.
तारीख 2
अक्टूबर, 2012.
समय 11:41. लगभग
पांच एकड का ग्राउन्ड खीखोखीच भरा उठा था. लोग लगातार आ रहे थे. गांवो-शहरो से बडी
संख्या में विभिन्न प्रकार के वाहनों में लोग आ रहे थे. रिक्शाओं, स्कूटरों, बाइकों,
और ट्रेनों द्वारा लोग आ रहे थे. कार्यक्रम की शुरुआत होते ही दाता दिल खोलकर दान
दे रहे थे. चोटीला के शिक्षको ने 75,000 का दान देकर शुरूआत की. दान के लिये अलग
अलग पांच काउन्टर रखे गये थे. परन्तु वो भी कम पड रहे थे. थानगढ के लोग, बहेनो
सहित असंख्य स्वयंसेवक पानी समिति, चाय समिति जैसी समिति द्वारा उनके कार्य को
उत्साह के साथ कर रहे थे. शुरूआत में पूरा ग्राउन्ड भर गया. लोग अपने कंधो पर अंगोछी
डालकर भी आए थे. जितने पुरुष थे, उतनी ही बहेनें थी. गुजरात के कोने कोने से लोग आ
रहे थे. लीमडी, मांगरोल, कोडीनार, उना, भावनगर, जूनागढ, कच्छ-भूज, राजकोट, जामनगर,
धारी, अमरेली, भरुच, सूरत, वलसाड, डांग, खेडा, आणंद, साणंद, सुरेन्द्रनगर,
ध्रांगध्रा, नवागाम, हलवद, मूली, कडी-कलोल, अमदाबाद, बनासकांठा, साबरकांठा,
वडोदरा, बावला, बोटाद सहित गुजरात के विविध भागो के अलावा मुंबई, महाराष्ट्र,
दिल्ही से भी लोग आये थे.
आते ही लोग दान देने लगे. चोटीला के पुलिस कर्मचारीओं ने
71,000 रूपया का दान दिया. मोरबी की तर फ
से 1 लाख 51 हजार रूपया का दान मिला. बावला के दलित समाज की तरफ से 70,000 हजार रूपया
का दान मिला. वांकानेर की तरफ से 51,000 रूपया का दान मिला था. समग्र मंडप का खर्च
करीबन रूपया देढ लाख चेनपुर के श्रेष्ठी विनुभाई परमार ने दे दिया. इस तरह, लोगो
के दान का प्रवाह निरंतर था. पूरे दिन में 45 लाख रूपया इकठ्ठा हो गये थे. असह्य
गर्मी और धूप के बीच भी गांवो और शहरों से आये दलित 'बाबासाहेब
की जय', 'हर जुल्म
की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है', 'बाबा ने पुकारा है,
भारत देश हमारा है' के नारे पुकारते आ
रहे थे. 1985 में गांधीनगर में रोस्टर-तरफी रेली के बाद 27 साल के बाद दलितों का
विशाल बिन-राजकीय संमेलन मिल रहा था, जहां समग्र गुजरात के दलित उमड पडे थे.
कार्यक्रम बीच में पहुंचने के बावजूद भी लोगों की संख्या बढती जा रही थी. यह
कार्यक्रम एक करिश्मे की तरह लग रहा था. कविओं ने अपनी वाणी में कविता के द्वारा
तीनों शहीदों के श्रद्धांजलि दी. कई लोगो नें गुजरात दलित पेंथर की केप भी पहेनी
थी. विशाल मैदान भी लोगो की भीड के सामने छोटा पड रहा था. वक्ता बाबासाहेब के
दृष्टांत देकर अत्याचार-न्याय के विरुद्ध न्याय हासिल करने की बातें कर रहे थे.
सभी न्यूज चेनल और न्यूज पेपर के पत्रकार और रिपोर्टर वहां उपस्थित थे. (दूसरे दिन
मीडिया ने इस घटना के समाचार को दबा दिया. ये नोंधपात्र था) स्टेज के बीच में
तीनों शहीदवीर के पोस्टर और फोटो रखे गये थे. बगल में उनके माता-पिता तथा
परिवारजनों को बिठाया गया था. कार्यक्रम की शुरूआत शहीदों को मौन श्रद्धांजलि देकर
की गई. हजारों की संख्या में आये बंधु-भगिनियों ने खडे होकर बुद्धवंदना करके श्रद्धांजलि
दी. शहीदों को फूलहार चढाया गया. थान की बहेनों ने विस्तारपूर्वक घटना का वर्णन
किया. सात लडके जो जेल में है. उनकी पत्नियां और माताओं ने भी रोते रोते हकीकत बयां
की. उन्होने कहा कि "हमारे बच्चों को
तीन तीन दिन तक पानी भी नहीं दिया जाता था. महेरबानी करके आप उन्हे जल्दी से
छुडवाये." उन्होने अपनी दिल की वेदना और दबे रोष को
लोगो के सम्मुख रखा. उनकी वेदना को सुनकर लोग हिल उठे. विराट जनसंख्या को देखकर कांग्रेस
के ढोंगी और भाजपा के भांड पागल हो गये. उन्होने स्टेज पर कब्जा जमाने के लिये
हल्ला किया और थोडे वक्त के लिये कार्यक्रम को अस्त-व्यस्त कर दिया.
परन्तु
वालजीभाई का वक्तव्य शरू होते ही भाजपी और कोंग्रेसी अपना मुंह छुपाकर भागने लगे.
वालजीभाई ने अपनी बात शुरू करते हुए कहा, "ऐसा नजारा
40 साल से मैंने अपनी जिंदगी में आज तक नहीं देखा." उन्होने
गुजरात के सभी जिल्लाओं के विस्तारों, गांवो, शहरो में से आये सभी दलितों का आभार
माना. उन्होने कहा कि, दु:ख की बात तो ये है
कि इस संमेलन को राजकीय अखाडा बनाने का प्रयास किया गया. हम तो बाबासाहब के खून है.
उनका खून हमारी नसो में बह रहा है. ये राजकीय नेता चाहते है कि, आप पथ्थर मारों और
चार गोली खाव. परन्तु हम ऐसा नहीं करेंगे. जो दलित अभी जेल में है और दूसरे दलित
जिनको पकडने का वोरंट निकला है उन पर कभी भी कलम-307 लगनी नहीं चाहिए, क्योंकि वह
तो एटेम्प टु मर्डर (हत्या की कोशिश) के लिये लागू होती है. मारने का प्रयास किसने
किया ये सभी जानते हैं. मैंने एफआईआर (प्रथम माहिती ब्यौरा) पढी है, जिसमें लिखा
है कि, भरवाड और दलित एक-दूसरे के आमने-सामने आ गये थे. ये सब बनावटी बातें है.
हकीकत में तो वहां कोई टोला था ही नहीं. और पुलिस की हत्या का प्रयास भी किसीने नहीं
किया था. पुलिस के बताये अनुसार कानून और व्यवस्था अस्तव्यस्त हो जाने के डर से
दोनो पक्षों को अलग करने के लिये पुलिस ने फाइरींग की थी तो गोली किसी भरवाड को भी
लगनी चाहिये थी. परन्तु जाडेजा ने जानबूझकर दलित युवकों पर जातिवादी मानसिकता से
गोलियों की बौछार की. के. पी. जाडेजा और उसके साथी पुलिस कर्मचारीओं पर सेक्शन 302
लगी, इसलिये सरकर ने भी कुबूल किया कि जाडेजा और उसके साथी पुलिस कर्मी खूनी है.
अभी तक जिन्होंने भी भाषणबाजी की है उसमें से मुझे बहेनों की व्यथापूर्ण बातें ही
पसंद आई है, जिनके बच्चे अथवा पति जेल में है. उन सभी बहनो को मैं भरोसा दिलाता
हूँ कि आपके बच्चों के खिलाफ लगी कलम 307 हटवाकर रहूंगा. और दूसरी बात. हमारी इस
मुहीम से राजनेता घबरा गये हैं और उनके खिलाफ हमारी लडाई आज से शुरू हो गई हैं."
उन्होने जेतलपुर के शकराभाई के हत्या की घटना का भी वर्णन किया. लोगो में
आत्मविश्वास बना रहे ऐसी बाते कही. उन्होने कहा कि हम भाषणबाजी करनेवालें में से
नहीं है, परन्तु चुपचाप पीछे बैठकर आगे की कार्यवाही करनेवाले है. लडकों को जेल
में से बहार निकालना ये सबसे जरूरी है. एट्रोसीटी एक्ट के अनुसार 30 दिन के अंदर
मुजरिम को पकडना चाहिये. हम सब यहीं से सरकार को ऐलान करते हैं कि 10 दिन में अगर
उन्हे पकडकर जेल में नहीं बंद किया गया तो हम सब सरकार के खिलाफ कदम उठायेंगे. हम
सभी जिल्ला के हरेक तालुका से अस्थिकुंभ यात्रा निकालेगे और शुरूआत सुरेन्द्रनगर
से करेगे. एक बडी ताकत सरकार को बतायेंगे. उन्होने कहा कि, भारत सरकार ने एक बजट
बनाया है जिसमें हरेक राज्य के सामाजिक न्याय समिति के मंत्री को उस फंड में से इस
तरह के पीडितों के लिये फंड का उपयोग करना होता है. परन्तु हमारा सामाजिक न्याय मंत्रालय
का मंत्री तो फकीर है बेचारा! केन्द्र में मुकुल वाशनिक है. उन्हें कहेगे और वहां
जाकर जवाब मागेंगे. उन्होने बताया कि, कांग्रेस, भाजप एक ही माला के मोती और एक ही
गटर के कीडे है. मैं इन दोनों के सामने लडा हूँ. चाहे वो दलित पेंथर हो या
काउन्सिल फोर सोश्यल जस्टिस. इसलिये महेरबानी करके हमारे सामने नौटंकी ना करे. मैं
कब से ये सब देख रहा हूँ कि यह कांग्रेसी और भाजपी यहां क्या नाटक कर रहे है, वो
भी भाषणबाजी करने के लिये. कल मुझे आप लोगों ने इस संमेलन का अध्यक्ष बनाने की
दरखास्त की थी, मगर मैंने इनकार किया था. अगर मैं अध्यक्ष होता तो इन सब को एक एक
थप्पड मारकर यहां से कब का भगा देता. उन्होने कहा कि सबसे बडा गुनेगार
सुरेन्द्रनगर का डीवायएसपी है, क्योंकि हमने असंख्य अर्जी करके उन्हे बताया था, फिर
भी जाडेजा के तबादले का आदेश होने के बाद भी उसने अपना चार्ज क्यों सौंपा नहीं था.
इसलिये जाडेजा को सस्पेन्ड करो और केस की जांच-पडताल सीट अथवा सीबीआई के द्वारा
करवाई जाये. और अगर ये मांगे मंजूर नहीं होगी तो हम कोर्ट में जायेंगे और जरूरत
पडने पर रस्ते पर भी उतर आयेगे. हमारी लडाई
भावनाओं के साथ जुडी है, राजकारण के साथ नहीं. इसलिये एक दिन पहले हम यहां आ गये थे
और कलेक्टर तथा आईपीएस जैसे अधिकारियों को मिलकर परमीशन भी ले ली. इस कार्यक्रम के
आयोजकों को मैं सलाम करता हूँ, जिन्होने खंतपूर्वक सभी तैयारियां की. कल ही शाम को
आयोजन-समिति की सभा में नक्की हुआ था कि किसी भी राजकारणी को स्टेज पर नहीं आने
दिया जायेगा. परन्तु इसका अमल नहीं हुआ, जो गलत हुआ. उन्होने राजकीय नेताओं को ध्यान
में रखते हुए कहा कि "तन बेच, मन बेच, बुजुर्गों
का कफन बेच, परन्तु तुझे ये हक नहीं था, ना है कि तु अपने समाज को बेच." अब हम
अन्याय नहीं सहन करेंगे."
बाद में
राजुभाई ने कहा, "23 सप्टेम्बर को हमने जब अमदाबाद के
सरदार पार्क की मीटींग में 'चलो थान' का कोल
दिया था, उस वक्त यह बात थान के लोगो को भी नहीं पता थी. 25 सितम्बर को 9 सभ्यों
की हमारी टीम ने थान में आकर 'चलो थान' का कोल दिया, जिसे थान के लोगों ने अपना
लिया, इसलिये मैं थान के लोगों का आभारी हुँ."
मुझे किसी
ने पूछा कि आप ये संमेलन क्यों कर रहे हैं? आप थान
क्यों जा रहे हैं? मैंने उससे एक बात कही. इसे शांति से सुनें.
"मेरे पिता
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर है (नरेन्द्र मोदी या राहुल गांधी नहीं). गुजरात में मेरा चालीस
लाख का परिवार है. मेरे परिवार के तीन लोगों की थानगढ में पुलिस ने हत्या कर दी
है. मैं उन्हे सांत्वन देने थानगढ जा रहा हूँ. और मेरे रास्ते में जो कोई भी आएगा
मैं उसे चीर दूँगा. मेरा कोल है आज के बाद अगर गुजरात में कहीं भी किसी दलित की
हत्या हुई तो हम सब इसी तरह वहां उमड पडेगें. बस इतना ही कहने के लिये मैं यहां
आया हुँ. वालजीभाई पटेल ने जो कार्य किया है उतना आज तक हजारों धारासभ्यों या
सांसदों ने भी नहीं किया." इतना कहने के बाद उन्होने अपना वक्तव्य पूरा करते
हुए कहा, हमें इन अत्याचारो को रोकना ही होगा, रोकना ही होगा.
कार्यक्रम
की पूर्णाहुति के बाद बहनें वालजीभाई से मिलने और उनका मोबाईल नंबर तथा एड्रस लेने
के लिये स्टेज पर चड गई. राजुभाई के समक्ष लोग अपनी बातें रख रहे थे और दोनो को
अभिनंदन भी दे रहे थे. टाइम्स ऑफ इंडिया ने दुसरे दिन 30,000 हजार संख्या की नोंध
ली थी. जबकि वहां 70,000 हजार लोग थे. वापस आते वक्त लोग हमारी गाडी देखकर "जय भीम, साहेब" बोलकर हाथ
उंचा करते थे.
'चलो थान'
का कोल क्यों सफल हुआ? यह महज संयोग नहीं
था. जब हमने कोल दिया तब इस बात का संपूर्ण खयाल रखा कि यह कोल समग्र समाज का हो. अखबार
में यह कोल किसी एक संगठन या संस्था का है, ऐसा प्रचार हमने नहीं किया. भूतकाल में
ऐसा हुआ है कि हमारे लोगों की संकीर्णता, अभिमान की वजह से हमारे आंदोलनों को काफी
नुकसान हुआ है. कोई भी व्यक्ति जब कोई कार्य करता है तो खुद के संगठन का ही बैनर
लगें ऐसा सोचता है. एक संगठन अगर कोई कोल देता है तो दुसरा उससे किनारा कर लेता
है. कोल समग्र समाज का नहीं बनता. इसलिए हमने हमारे इतिहास से सबक शीखकर सबक
संमेलन का आयोजन करके समग्र समाज को साथ में लेने की रणनीति बनाकर चलो थान के कोल
को सफल बनाया.
(अनुवाद - सीमा पटेल)
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