उन
दिनों मैं भोपाल था. युनियन कार्बाइड की ज़हरीली गैस के रीसाव से एक ही रात में
हजारों लोग मौत की नींद सौ गए थे. मैं ज़हरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा के
राष्ट्रव्यापी अधिवेशन में हिस्सा लेने गया था और एक सप्ताह भोपाल में ही रूक गया
था. दिनभर गैस से पीडित जयप्रकाश नगर, कैंची छोला जैसी बस्तियों में घुमता था.
वहां भी दलित थे, जो फ़रीयाद कर रहे थे कि उनको कंबल वगैरह के आवंटन में एनजीओवाले
और आरएसएसवाले अन्याय कर रहे हैं.
तब
मध्यप्रदेश में कांग्रेस का शासन था और मुख्यमंत्री था अर्जुन(सिंह). युनियन
कार्बाइड के खिलाफ शुरू हुई लडाई धीरे धीरे साम्राज्यवाद विरोधी रूख अपना रही थी
और अर्जुन जैसे साम्राज्यवाद के शातीर दलाल को मालुम था कि यह लडाई में व्यवस्था
परिवर्तन की बहुत बडी गुंजाइश थी. अर्जुन ने रातोरात आरक्षण का क्वोटा बढाकर 70
फीसदी कर दिया. चंद घंटो में युनियन कार्बाइड के खिलाफ लड रहे सवर्ण लोग, जिसमें
ज्यादातर विद्यार्थी थे, आरक्षण के खिलाफ नारे लगाने लगे.
भोपाल
की गलियों में भयावह नजारा दिखाई दे रहा था. लडके हाथ में जो कुछ भी शस्त्र-अस्त्र
आया, उसे लेकर नीकल पडे थे. बसों-गाडियों के कांच तूट रहे थे, बसें जलाई जा रही
थी. चारो ओर आतंक का माहौल था. मैं भी भोपाल की गलियों में घुम रहा था. एक लडके का
हाथ थामकर मैंने कहा, "भैया, यह क्या हो रहा है?"
उसने कहा, "आपको
मालुम नहीं, अर्जुनवे ने चमारों-कोरियों का आरक्षण बढा दिया है. हम यह बर्दास्त
नहीं करेंगे." मैं दंग रह गया यह सुनकर. 'अर्जुनवे' ने आरक्षण पीछडी जातियों का बढाया
था (जिसे गुजरात में हम बक्षी पंच कहते है, शुद्रों के भी कितने नाम है! शुद्र शुद्र ही नहीं है इस देश
में!) और
यह सवर्णलोग दलितों को गालियां दे रहे थे. शायद शुद्रों के खिलाफ कभी नहीं बोलने
की उनकी पौराणिक रणनीति उनके सबकोन्सीयस में पडी है, क्योंकि अगर वे शुद्रों के
खिलाफ बोलने लगेंगे तो शुद्रों का दलितों के खिलाफ इस्तेमाल कैसे करेंगे?
उन्ही
दिनों मैंने वहां के प्रमुख अखबार दैनिक भास्कर के प्रथम पन्ने पर (जो गुजरात में
आकर 'दिव्य
भास्कर'
बन गया है) एक कार्टुन देखा. कार्टुन में एक सरकारी ओफीस दिखाई
देती थी. एक टेबल पर ढेर सारी फाइलें रखी गई थी. कुर्सी पर एक सूअर बैठा था और
कार्टुन का शीर्षक था, "आरक्षण का फायदा, साहब
बन गए." इस कार्टुन ने आरक्षण-विरोधी लडाई को कितना मजबूत किया होगा, यह बात पर आप गौर ना करें. इसने दलितों-पीछडों के खिलाफ सवर्ण-पूर्वग्रह को कितना तीक्ष्ण बनाया होगा, यही हम सोचें.
अभी डा. बाबासाहब अंबेडकर के कार्टुन को लेकर पूरे देश में जो हंगामा हुआ और दैनिक
भास्कर (दिव्य भास्कर) सहित तमाम अखबारों ने इस देश के संविधान में दिए गए लेखन
स्वातंत्र्य के हनन पर दुख व्यक्त किया है और यह मातम अभी जारी है. इस सीलसीले में
हमें भोपाल के दैनिक भास्कर का यह कार्टुन याद आ गया. आपको दैनिक भास्कर का कोई
पत्रकार मीले तो उसे जरूर यह बात बताना. (दिव्य भास्कर अपने आपको गुजरात में जनता
की मरजी का अखबार कहता है, वास्तव में वह सवर्णों की मर्जी का अखबार है, हमारे
गुजरात के दलित बेवकूफ है, जो इस अखबार को अपनी मर्जी का अखबार समजते हैं!)
rajesh sir bahut super note.............I am agree 1000 percent
ReplyDeleteराजुभाई, आपने सौ फी सदी सही फरमाया. लगता है जैसे इस देशमे सारे लोग एक ओर, और दलित लोग एक ओर है. जिसे लोग पिछड़े या शूद्र के नामसे जानते है उन में तो तनिक सी भी जागृति नही दिखती इस वर्ण व्यवस्था के दूषण के प्रति! कहाँ पिछ्डो में राजकीय-सामजिक-धार्मिक क्रन्तिकी मशाल जलाने वाले मसीहा जोतिबा फूले, ओर कहाँ आज के केवल सत्तालालची लालू -मुलायम-नितीश-मोदी-पवार जैसे पिछड़ों की राजनीति करने वाले राजकीय नेता लोग ? ओर उस पर अनेको हिन्दू व्यासपीठ से अनेको बावाओकी निरंतर चलती रहती वर्णवादी गुहार, साथ में हिन्दू मीडिया का स्टेटस-क्वो को बनाए रखने की साज़ेदारी ! ब्राह्मण-खत्रिय-वैश्य के हितोको सुरक्षित व बढ़ने वाली इस समाज रचना को जब तक शूद्र वर्ण के लोग समझ नहीं पायेंगे तब तक इस देशमे समतावादी कोई क्रांति हो नहीं पाएगी.
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