मेघमाया वधस्तंभ पर राजा से मांगते है, कि तू मेरे लोगों को
मैं जो मांगु इतनी चीजें दें. हमारे गुजरात में इस कहानी हम सूनते हैं तो हमे रोना
आता है. आज यह लिख रहा हुं तब बी मेरे रोंगटे खडे हो जाते है और आंखों मे पानी भर
आता है. मगर मैं इमोशनल नहीं बनुंगा. दलितों की आड में, वीर मेघमाया के नाम पर,
बाबासाहब के नाम पर नरेन्द्र मोदी गुजरात में कैसा इमोशनल हीस्टीरीया पैदा करते हैं
यह जानना जरूरी है. मोदी लिखते है,
"बाबासाहब आंबेडकर के पहले भी दलित
समाज ने अनेक समाजसुधारकों की भेंट दी है. इस शृंखला में सामाजिक क्रान्ति के एक
प्रेरणापुरुष वीर मेघमाया का नाम जाना पहेचाना है. वीर मेघमाया का व्यक्तित्व ऐसा
था कि जिससे सारी राज्यव्यवस्था प्रभावित हुई थी. वह सिर्फ दलित समाज की श्रद्धा
के केन्द्र बने थे ऐसा नहीं था. उन्होने उस समय की राज्यव्यवस्था पर भी प्रभाव
पैदा किया था. वीर मेघमाया ने समाज तृषातुर न रहे उसके लिए अपने प्राणों की आहुती
दी थी. वह महापुरुष ने समाज नवचेतना जगाई थी. हमारी समाजव्यवस्था में पैदा हुए
अस्पृश्यता के कलंक की उस वक्त कीतनी तीव्रता होगी, वह बात मेघमाया की
दीर्घद्रष्टि से जानी जा सकती है. उन्हो ने राजसत्ता के पास कौनसी मांगे रखी? उन्हो ने
कहा, हमें तुलसी और पीपल की पुजा करने का अवसर मीले. बारोट, वहीवंचा, गरोडा की
व्यवस्था मीले. वीर मेघमाया की यह छोटी सी बात में एक लंबे युग की दिशा थी, दर्शन
था. वर्ना किसी को ऐसा विचार आता है? हमें तो ऐसा विचार आयेगा कि दो
एकड़ जमीन दे दो ताकि संतान सुखी हों. वीर मेघमाया ने ऐसे भौतिक सुखों की या
व्यक्तिगत मांगे नहीं की थी. समग्र समाज के सुख की कल्पना की थी. इस समाज में कैसे
नररत्न पैदा हुए है इसका यह उदाहरण है. यह समग्र हिन्दु समाज को समरस करने की उनकी
कामना थी. डा. बाबासाहब आंबेडकर को उन्नीसवीं सदी में जो विचार आया था वही विचार मेघमाया
को एक हजार साल पहेले आया था कि मेरा समाज इस सांस्कृतिक प्रवाह से दूर चला न जाए."
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पन्ने की किताब का यह एक पन्ना है. मोदीसाहब की यह सारी लफ्फाजी का एक ही
मध्यवर्ती सूर है, हिन्दु समरसता. आपको उसके लिए मर जाना है, मगर दो एकड जमीन नहीं
मागना है. क्योंकि आप जैसे गधों को मैं ऐसे जमीन बांटता फिरुंगा तो फिर टाटा, अंबानी,
एस्सार, फोर्ड, मारुती, जैसे बडे बडे लोगों को मैं जमीन कहां से लाके दुंगा. आप
लोगों को जमीन मील जाएगी तो गरीब मेला में हम किसको पैसै बांटेगे, मंदिरों के आसपास
भिखारी हमें नहीं मीलेंगे तो हमारा धरम नष्ट हो जाएगा, और लीबरलाइज़ेशन,
ग्लोबलाइज़ेशन के लिए सस्ते मजदूर हमें कहां से मीलेंगे.
अफसोस
की बात है कि गुजरात के दलितों में पैदा हुआ एलीट, सुविधापरस्त, सरकारी नौकरों का
वर्ग भी इस बात को समजता नहीं है. हम लोग अमरेली से लेकर बनासकांठा के दुर्गम
विस्तारों में दलितों की दो एकड़ जमीन की लडाई लड रहे हैं. इस लडाई को दलितों के
बुद्धिजीवी वर्ग का कोई समर्थन नहीं मील रहा है. बम्मनवाद को गाली देना आसान है.
जमीन की लडाई लडनी मुश्कील है. आज बाबासाहब को प्रणाम करते वक्त यह बात याद रहें
तो कितना अच्छा होगा.
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