दलितों-शोषितों
का आंदोलन कांग्रेस या बीजेपी की उंगलियों पर नाचना चाहिए. अगर उनका आंदोलन कांग्रेस-बीजेपी
की सीमा को लांघकर चला तो दोनों पार्टियां मिलकर दलितों-शोषितों के खिलाफ मुहीम
चलायेंगी. इसमें कोई शक नहीं. गुजरात में बार बार ऐसा हुआ है. जब 1985 में
गांधीनगर में दलितों-आदिवासियों-पीछडों की पांच लाख की विशाल रेली निकली और
कांग्रेस को लगा कि यह चिनगारी उसे भस्म कर देगी तब उसने कर्मचारी उत्कर्ष मंडल की
जडें उखाड दी. आज ऐसा कोई मंडल था या नहीं यह भी किसी को पता नहीं. 1989 में सांबरडा
में दलितों का आंदोलन हुआ, तब राज्य में कांग्रेस की सरकार थी. बीजेपी ने सांबरडा
आंदोलन का भरपुर फायदा उठाया. फकीर वाघेला, रतिलाल वर्मा जैसे बीजेपी के मामुली
कार्यकर्ता उस वक्त सांबरडा की तूती बजाकर दलितों के सन्मान्य नेता बनें.
थानगढ में भी इसी
तरह कांग्रेस के दलालों नें दलितों के आक्रोश को भूनाने की भरचक कौशिश की. थानगढ के
दलित महासंमेलन के अगले दिन 1 अक्तुबर को थानगढ संघर्ष समिति की बैठक में यह तय
किया गया था कि कल के संमेलन में दोनों राजकीय पक्षों के किसी भी दलाल को स्टेज पर
चडने नहीं देंगे. दूसरे दिन हम लोग देखते रह गये और स्टेज पर कांग्रेस के दलाल चड
गए.
गुजरात का
जातिवादी मीडीया भी चाहता था और चाहता है कि दलितों-शोषितों कांग्रेस या बीजेपी के
चमचे ही बनें रहें. इसलिए मीडीया ने कांग्रेस के नेतृत्व में जहां जहां प्रोग्राम
हूए, उसकी जमकर पब्लिसिटी की. फिर वह कार्यक्रम गांधीनगर की कांग्रेस-प्रेरीत
धिक्कार रेली का हो, या गवर्नर को आवेदनपत्र देने का हो. थानगढ के कुछ दलित गुमराह
हो गए. कैसे लोग दलितों को बेवकूफ बना रहे थेॽ एक बीजेपी से कांग्रेस में आया था, दूसरा चंद
दिनों में कांग्रेस को छोडकर बीजेपी में जानेवाला था. ऐसे लोगों ने दलितों की
नैंया डुबा दी और दलितों के
तथाकथित कार्यकर्ता-नेता कांग्रेसियों के पीछे पीछे अभी भी घूम रहे है.
हमें नई सोच की
जरुरत है. दलितों पर अत्याचार होते हैं तब जो भी पक्ष विपक्ष में होता है, हमारे झुझारु
कर्मशील उनके पीछलग्गु बनकर एनेक्सी में एरकन्डिशन्ड मीटींग करते हैं. सांबरडा में
हताहत होते है तो चुनाव में कांग्रेस को हराने का मनसुबा बनाते है, और थानगढ मे
घायल होते हैं, तो बीजेपी को नेस्तनाबुद करने की सोचते हैं. कभी कांग्रेस के पीछे
तो कभी भाजप के पीछे. हमारी राजनीति से तो कुत्ते की दुम अच्छी होती है.
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