लोहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की जाति को पचास साल पहले गुजरात में नामर्द, दुर्बल कहा जाता था. न सिर्फ पटेल को, बल्कि ठाकोर, वाघरी, दलित, हजाम, कुंम्भार जैसी तमाम बहुजन जातियों के लिए धिनौने अर्थों का उपयोग किया जाता था. और इन सारे अर्थों को गुजराती भाषा के प्रथम जोडनीकोश में स्थान दिया गया था. हमारी जद्दोजहद से इसमें से कुछ अर्थ निकाल दिए गए, कुछ अभी भी जोडनीकोश के अद्यतन संस्करणों में यथावत है. कुछ दिन पहले हमने गुजरात विद्यापीठ के कुलपति सुदर्शन आयंगरजी को इसके बारे में लिखा पत्र यहां प्रस्तुत है,
राजु
सोलंकी
ता. 21
अप्रैल 2012.
(मो.9898650180)
आदरणीय
सुदर्शनभाई,
कुशल
होंगे.
सार्थ
गुजराती जोडनी कोश का परिशिष्ट सहित पांचवा पुनर्मुद्रीत संस्करण ओक्टोबर, 2008
में प्रकाशित हुआ. 1024 पन्ने का यह जोडनी कोश गुजराती भाषा का सर्वप्रथम ऐसा कोश
है, जिसने जोडनी क्षेत्र में फैली अव्यवस्था को दूर करने का प्रयास किया था. 2008
की आवृत्ति में कुलनायक के निवेदन के रूप में आपने वर्तमान समय में हो रहे जोडनी
के विवादों की नोंध ली है. आप लिखते हैं, "पिछले एक-दो दसकों में गुजराती भाषा के
जोडनी कोश को लेकर बहुत से विवाद हुए है, विवाद के कारण नया संस्करण प्रकाशित हो नहीं
सका ऐसा कहा नहीं जा सकता, लेकिन विवाद पूरबहार में है ऐसे समय सुधारा गया संस्करण ध्यानपूर्वक और वैधानिक तौर पर हो ये आवश्यक है." प्रथम संस्करण 1929 में प्रकाशित हुआ
था उसके बाद "अब किसी को भी स्वेच्छा से जोडनी करने का अधिकार नहीं है", ऐसा गांधीजी ने कहा था.
गुजराती
भाषा की जोडनी कैसी होनी चाहिए उस विषय पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए, इसमें दो राय
हो ही नहीं सकती. 1929 से लेकर 2008 तक के 79 सालों में इस विषय पर चर्चा होती रही
और इस पर किसी तरह पूर्णविराम नहीं रखा गया यह बात एक बुद्धिमान प्रजा होने के
हमारे दावे पर बडा प्रश्नचिन्ह है. किन्तु, मेरे लिये जोडनी से भी महत्व का एक
मुद्दा है, जिसकी तरफ मैं आप जैसे संवेदनशील विद्वान का ध्यान आकर्षित करना चाहता
हूँ.
सार्थ
जोडनी कोश में कणबी का मतबल 'नामर्द, अशक्त पुरुष'; वाघरी का 'गंदा, असभ्य या नीच लोग'; कुंभार का 'बिनकार्यदक्ष
व्यक्ति', बारैया का 'चोरी-लूटफाट करनेवाला';
हजाम (नाई) का 'निकम्मा इंसान'
तथा ढेडवाडो का मतलब 'गंदी, अस्वच्छ जगह' जैसे अर्थ थे. इस
अर्थों के खिलाफ हमने 1985 में आवाज़ उठाई थी और लोक अभियान चलाया था, इतना ही
नहीं सार्थ जोडणी कोश का जलाने का आह्वान भी दिया था. मूलजीभाई खुमाण के ‘दिशा' पाक्षिक में हमने "अब किसी को स्वेच्छा
से बहुजन समाज के भावनाओं को ठेस पहुंचाने का अधिकार नहीं है,"
शीर्षक से लेख लिखा था. इस लेख के प्रतिभाव में गुजरात के जानेमाने
पत्रकार वासुदेव महेता ने ‘संदेश' में उनकी कोलम 'अल्प विराम' में लिखा था कि, "सोलंकी ऐसा मानते हैं
कि सवर्ण समाज बंद कमरे में बैठकर ऐसे अर्थ जोडनी कोश में डालने के प्रस्ताव करते
है."
बाद
में हमने महेता को एक पत्र लिखा था, जिसका
उत्तर देना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा था. अलबत्ता, हमारी लडाई के कारण आज सार्थ
कोश की आवृत्ति में से बहुत सारे शब्दों के अर्थो को निकाल दिया गया है.
आज
2012 में 27 सालों के बाद कुछ मुद्दों के कारण सावर्जनिक तौर पर चर्चा करने की हमें
आवश्यकता पडी है. 2008 की अद्यतन आवृत्ति में से कणबी, वाघरी, कुंभार के पूर्वग्रहयुक्त
अर्थो को निकाल दिया है. जबकि बारैयो और हजाम के लिये पुरानी आवृत्ति में छपे अर्थ
ज्यों के त्यों है. बारैयो (पन्ना नबंर 595) शब्द के अर्थ इस तरह यथावत है. 1. बहार
रखडतो रही चोरी के लूंट करनार (बहार रहकर चोरी-लूटफाट करनेवाला), 2. ठाकरडा
नी एक जात (ठाकरडे की एक जाति), 3. झाडु देनार तथा संडास वाळनार भंगी (झाडु
लगानेवाला तथा संडास साफ करनेवाला-भंगी). ढेड (पन्ना नं-398) के साथ जुडे शब्द
जैसे कि ढेडगरोली, ढेडण, ढेडवाडा है. इसके अलावा अन्य सभी शब्द जो पहले की आवृत्तियों
में थे, उन्हे हटा दिया गया. परन्तु ढेड शब्द जो अनुसूचित जातियों के लिए सवर्णो
के द्वारा कहा जाता तिरस्कारयुक्त शब्द है, जो एट्रोसीटी एक्ट के तहत दंडनीय है,
ये सभी शब्द जोडनीकोश में से अगर दूर हो जाये तो गुजराती भाषा का गौरव घटेगा या
बढेगा?
मजेदार बात तो ये है कि
बामण और बामणी (पेज नं-594) के अर्थो को देते समय कोशकार ने यह अर्थों का 'ज्यादातर
तिरस्कार में' उपयोग कया जाता है ऐसी नोंध रखने की दरकार की है.
ऐसी दरकार बारैयो या फिर ढेड शब्द में क्यों नहीं ली गई?
बारैयो और ढेड जैसे शब्दों को सार्थ कोश में शामिल नहीं करेगे तो गुजराती भाषा का
अस्तित्व खतरे में पड सकता है, ऐसा विश्वास कोशकार को सौ प्रतिशत हो तो भी ये शब्द
‘तिरस्कार' में लिये जाते है, ऐसी नोंध रखने में उन्हें क्या
आपत्ति है? मैं अपने कहे शब्दों के भावार्थ को स्पष्ट करने के
लिये एक उदाहरण देता हूँ. विधापीठ में विदेश से असंख्य लोग आते है. गुजरात में
घूमते-फिरते समय, बस में, होटल में, गलीओ में ‘ढेड'
शब्द उनके कानो में सुनाई दे सकता है. उन्हें इस शब्द के अर्थ को जानने का हक है.
स्वाभाविक है कि वे सार्थ कोश में से इस शब्द का अर्थ ढूंढने की कोशिश करेंगे. हमें
उन्हें बताना चाहिए कि ये शब्द इतना मलीन, गंदा, बीभत्स और कुत्सित है कि गांधीजी
ने इसका पर्याय 'हरिजन'
शब्द दिया. सार्थ जोडनी कोश में यह इतिहास क्यों शामिल नहीं हो सकता?
इसी कोश के पेज नं-883 पर हरिजन शब्द के अर्थ दिये गये है. 1. हरि-विष्णु का आदमी,
देवदूत, 2. भक्त. यहां पर गांधीजी ने हरिजन शब्द के लिये जिस अर्थ का प्रयोग किया
है उसे क्या जानबूझकर टाल दिया गया है?
सार्थ गुजराती जोडनी कोश
के अलावा, डिसेम्बर 1992 में प्रकाशित गुजराती-हिन्दी कोश की आवृत्ति में कुम्हार
(पेज नं-18) यानि अनग़ढ या मुर्ख व्यक्ति, ढेड (पेज नं-227) यानि इस नाम की अंत्यज
जाति का आदमी, ढेड गुजराती यानि अंग्रेजी मिश्रित गुजराती, ढेड फजेती यानि सब के सामने
या खुलेआम फजीहत, ढेडवाडो यानि 1. ढेड लोगों का मुहल्ला या टोला, 2. गंदी अस्वस्छ
जगह, मैला, वाघरी (पेज नं-450) यानि गंदा, असभ्य नीच व्यक्ति, वाघरण यानि गंदी,
फूहड स्त्री जैसे अर्थ दिये गये है. हिन्दी कोश ने गुजराती शब्द कोश का अनुकरण
किया है, इसलिये ऐसा होना तो स्वभाविक है परन्तु, कणबी, बारैया जैसे शब्दों को इस
में से निकालने के पीछे क्या तर्क हो सकता है?
या फिर प्रुफ रीडिंग की भूल?
उसी तरह हिन्दी-गुजराती
कोश जुलाई 2009 में पुनर्मुद्रीत आवृत्ति में कणबी, बारैयो, वाघरी-वाघरण शब्द नहीं
है. तथा कुम्हार और नाई के अर्थ सार्थ जोडनी कोश में दिये गये पहले के अर्थो की
तरह पूर्वग्रहयुक्त नहीं है. परन्तु, ढेड (पेज नं-233) शब्द का अर्थ 1. कौआ, 2.
हलकी जाति, 3. मूर्ख, 4. कपास का जींडवा दिया है.
जिन जातियों का अर्थ नहीं दिया गया है, वे जातिया गुजरात में से नेस्तनाबूद नहीं
हुई है, तो उनका अर्थ ना देने के पीछे क्या तथ्य हो सकता है?
और बापूजी ने जिस शब्द को विकल्प के रूप में दिया था, उस शब्द के लिये इतना अधिक
प्रेम क्यों है? आप तो एक विद्वान समाजशास्त्री है. मैंने हमेशा आप
का आदरपूर्वक सुना है, याद किया है. गुजरात विधापीठ में मैंने अपने यौवनकाल के
किंमती वर्ष विद्वान प्रबुद्धजनों की वैचारिक विरासत को
पढने में गुजारे है. दु:ख इस बात का है कि गुजराती
समाज को जिन कुछ चीजों को काल की गर्त में विलीन कर देना चाहिए, जिन पूर्वग्रहों
को दफन करके समरस, समान हो जाना चाहिए, वही शब्द फिर से (रिपीट फिर से) सार्थ
जोडनी कोश जैसे पवित्र, अधिकृत ग्रंथ में आये तो आंखे आश्चर्यचकित हो ही जाती है,
साथ ह्रदय ग्लानी से भर आता है. इन शब्दों को हम क्यों धरती में दफना नहीं देते?
या फिर अब भी हम अपने पूर्वजों की जातिवादी मानसिकता को जाने-अनजाने प्रोत्साहन दे
रहे हैं?
कई सालों से मैं इस भावना
को ह्रदय में दबाकर बैठा हुं. आज आप के सामने व्यक्त कर रहा हूँ. गुजरात विधापीठ
के प्रति परम आदर की भावना है. सांप्रत काल में धर्मजनूनी लोगों ने सारी हदें तोड
दी है. समरसता के नाम पर कत्लेआम का युद्धनाद सुनाई देता है, ऐसे कठीन दौर में गुजरात
विधापीठ उसके गौरव को लांछन लगानेवाली इस क्षति को हो सके उतनी जल्दी दूर करे यही
प्रार्थना है.
आपका
राजु सोलंकी
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