हमारे आंदोलनों
की सबसे बडी कमजोरी यह है कि हम नया नेतृत्व तैयार करने से कतराते हैं. हमारा
नेतृत्व, चाहे कितना कमिटेड क्यों न हो, इस मामले में बडा स्वार्थी है. और यह बात
सामाजिक, राजकीय, सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में सिद्ध हो चूकी है. हम दूसरे को मशाल देने के बजाय पूरी जिंदगी हाथ में मशाल लेकर दौडना चाहते हैं, कुछ भी हो जाय, इतिहास में मेरा नाम अमर हो जाना चाहिए.
हम किसी और
राज्य के बारे में नहीं बोलेंगे, मगर गुजरात की बात करेंगे. यहां दो बडे नेता
दलित आंदोलन में उभर कर आए. उनकी प्रतिबद्धता निसंदेह थी और है. गुजरात में दलितों
को संगठित करने में, हमारी समस्याओं को व्यक्त करने में उनका बडा योगदान है. मगर
साथ मिलकर काम नहीं कर सकते. आप उनसे मिलोगे तो वे एक दूसरे की गलतियां निकालेंगे.
और जब एक होते हैं, तो नई पीढ़ी की गलतियां निकालते है. दोनों को नई पीढ़ी की
क्षमता के बारे में अविश्वास है. उनके बम्मन प्रगतिशील दोस्तों की भी यही राय है.
कुल मिलाकर यह सभी लोगों का यही मानना है कि उनके बाद दुनिया खत्म ही होनेवाली है.
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