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Friday, May 25, 2012

काफी नहीं दो गज जमीं




गुजरात के बनासकांठा डीस्ट्रीक्ट के जोरडीयाली गांव की एक तरफ राजस्थान और दुसरी तरफ पाकिस्तान है. इस गांव में सन 1981 से एग्रीकल्चरल लेन्ड सीलींग एक्ट के तहत दलितों को जमीन मीली थी, मगर उस गांव के दबंग सवर्ण लोग जोत रहे थे. 2011 की 24 जनवरी के दिन दलितों ने उन खेतों में घुसकर दबंगो की फसल उखाड के फेंक दी और जलाकर राख कर दी. इस लडाई में हिस्सा ले कर हम धन्य हुए हैं. प्रस्तुत है उस घटना की वीडीयो क्लीप. इसकी पूरे कद की डोक्युमेन्टरी फिल्म काफी नहीं दो गज जमीं के नाम से दलित हक रक्षक मंच ने तैयार की है.

Monday, May 21, 2012

आरक्षण का फायदा, साहब बन गए


उन दिनों मैं भोपाल था. युनियन कार्बाइड की ज़हरीली गैस के रीसाव से एक ही रात में हजारों लोग मौत की नींद सौ गए थे. मैं ज़हरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा के राष्ट्रव्यापी अधिवेशन में हिस्सा लेने गया था और एक सप्ताह भोपाल में ही रूक गया था. दिनभर गैस से पीडित जयप्रकाश नगर, कैंची छोला जैसी बस्तियों में घुमता था. वहां भी दलित थे, जो फ़रीयाद कर रहे थे कि उनको कंबल वगैरह के आवंटन में एनजीओवाले और आरएसएसवाले अन्याय कर रहे हैं.

तब मध्यप्रदेश में कांग्रेस का शासन था और मुख्यमंत्री था अर्जुन(सिंह). युनियन कार्बाइड के खिलाफ शुरू हुई लडाई धीरे धीरे साम्राज्यवाद विरोधी रूख अपना रही थी और अर्जुन जैसे साम्राज्यवाद के शातीर दलाल को मालुम था कि यह लडाई में व्यवस्था परिवर्तन की बहुत बडी गुंजाइश थी. अर्जुन ने रातोरात आरक्षण का क्वोटा बढाकर 70 फीसदी कर दिया. चंद घंटो में युनियन कार्बाइड के खिलाफ लड रहे सवर्ण लोग, जिसमें ज्यादातर विद्यार्थी थे, आरक्षण के खिलाफ नारे लगाने लगे.

भोपाल की गलियों में भयावह नजारा दिखाई दे रहा था. लडके हाथ में जो कुछ भी शस्त्र-अस्त्र आया, उसे लेकर नीकल पडे थे. बसों-गाडियों के कांच तूट रहे थे, बसें जलाई जा रही थी. चारो ओर आतंक का माहौल था. मैं भी भोपाल की गलियों में घुम रहा था. एक लडके का हाथ थामकर मैंने कहा, "भैया, यह क्या हो रहा है?" उसने कहा, "आपको मालुम नहीं, अर्जुनवे ने चमारों-कोरियों का आरक्षण बढा दिया है. हम यह बर्दास्त नहीं करेंगे." मैं दंग रह गया यह सुनकर. 'अर्जुनवे' ने आरक्षण पीछडी जातियों का बढाया था (जिसे गुजरात में हम बक्षी पंच कहते है, शुद्रों के भी कितने नाम है! शुद्र शुद्र ही नहीं है इस देश में!) और यह सवर्णलोग दलितों को गालियां दे रहे थे. शायद शुद्रों के खिलाफ कभी नहीं बोलने की उनकी पौराणिक रणनीति उनके सबकोन्सीयस में पडी है, क्योंकि अगर वे शुद्रों के खिलाफ बोलने लगेंगे तो शुद्रों का दलितों के खिलाफ इस्तेमाल कैसे करेंगे?

उन्ही दिनों मैंने वहां के प्रमुख अखबार दैनिक भास्कर के प्रथम पन्ने पर (जो गुजरात में आकर 'दिव्य भास्कर' बन गया है) एक कार्टुन देखा. कार्टुन में एक सरकारी ओफीस दिखाई देती थी. एक टेबल पर ढेर सारी फाइलें रखी गई थी. कुर्सी पर एक सूअर बैठा था और कार्टुन का शीर्षक था, "आरक्षण का फायदा, साहब बन गए." इस कार्टुन ने आरक्षण-विरोधी लडाई को कितना मजबूत किया होगा, यह बात पर आप गौर ना करें. इसने दलितों-पीछडों के खिलाफ सवर्ण-पूर्वग्रह को कितना तीक्ष्ण बनाया होगा, यही हम सोचें. 

अभी डा. बाबासाहब अंबेडकर के कार्टुन को लेकर पूरे देश में जो हंगामा हुआ और दैनिक भास्कर (दिव्य भास्कर) सहित तमाम अखबारों ने इस देश के संविधान में दिए गए लेखन स्वातंत्र्य के हनन पर दुख व्यक्त किया है और यह मातम अभी जारी है. इस सीलसीले में हमें भोपाल के दैनिक भास्कर का यह कार्टुन याद आ गया. आपको दैनिक भास्कर का कोई पत्रकार मीले तो उसे जरूर यह बात बताना. (दिव्य भास्कर अपने आपको गुजरात में जनता की मरजी का अखबार कहता है, वास्तव में वह सवर्णों की मर्जी का अखबार है, हमारे गुजरात के दलित बेवकूफ है, जो इस अखबार को अपनी मर्जी का अखबार समजते हैं!)

Sunday, May 20, 2012

गुजरात के पुलीस स्टेशनों पर जमीन के दलालों के इस्तेहार


डीएनए का वृतांत - पुलीस-पोलीटीशीयन की दोस्ती

गुजरात के पुलीस स्टेशन्स पर बील्डरों की एडवर्टाइज़ करते हुए होर्डीग लगाए गए हैं. इससे बील्डरों को कीतना बडा फायदा होता होगा उसका अंदाजा हम लगा सकते है. सब लोग कहते हैं, मोदी गुजरात की जमीनें बेच रहा है, मगर कोई यह नहीं कहता, कैसे? मोदी ने गुजरात की पुलीस को जमीन के दलालों की भी दलाल बना दी है. अब आप ही बताये ये पुलीस वह 10,000 से ज्यादा लापता बच्चों की माताओं की पुकार सूनेगी? या बील्डरों के साथ बैठकर पुलीस स्टेशनों में महेफील मनायेंगी?

कोडीनार में टाटा के पावर प्लान्ट के लिए बीजेपी का सांसद और कारडीया राजपुत जाती का दीनु सोलंकी और उसके गुंडे दलितों की जमीनें सस्ते दामों में बीकवा रहा है. (इसका संपूर्ण ब्यौरा हम चंद दिनों में देंगे) यह वही दीनु सोलंकी है, जिसके गंवार, अनपढ भतीजे ने गुजरात हाइकोर्ट के दरवाजे पर आरटीआई एक्टिविस्ट जेठवा की हत्या की थी. अभी वह बेइल पर छूट गया है, और कोडीनार में उसका आतंक जारी है. एक आदमी गुजरात हाइकोर्ट के सामने किसी की हत्या करता है, फिर भी बेइल पर छूट सकता है, यह स्थिति गुजरात में है, और मानव अधिकार पंच के चेरपर्सन बालकृष्णन मोदी सरकार को क्लीन चीट देते हैं. राजकोट में दलित विद्यार्थीओं पर बेतहासा सीतम बरसाती हुई, उनके लेपटोप-मोबाइल्स पांव तले कुचलती हुई, होस्टेल के कमरों के दरवाजों को तोडती हुइ गुजरात की पुलीस कहती है, "मादरचोदों, तुम्हार बाप गांव में चमडा चूंथ रहा है, और तुम यहां ऐसा करते हो". (यह पूरी बात हमने रेकोर्ड की है और उसकी डोक्युमेन्टरी "मेरे बाप का पुतला" नाम से अभी आ रही है)

ऐसी पुलीस को बीजेपी ने बील्डरों की भडवी बना दी है. इस लिए हमने एनेक्सी में मानव अधिकार पंच के समक्ष कहा था, गुजरात सरकार को आदेश दिया जाय कि पुलीस स्टेशनो पर लगे बील्डरों की एडवर्टाइज के बोर्ड तुरन्त निकाले जाय. कमिशन ने गुजरात के डीजी को इस मामले में आदेश दे दिया है, डीजी कहते है, "यह हमने पब्लिक-पुलीस पार्टनरशीप के तहत किया था." हालांकी कमिशन ने हीयरींग के नाम पर गुजरात में ड्रामा ही किया है, यह बात हम कह चूके है. और उसका ब्यौरा अखबारों में छप चूका है. 

Saturday, May 19, 2012

गांधीनगर की हण्डी में मानव अधिकार का गुड

वेलकम टु क्लीन चीटींग ऑफ गुजरात

पीछले साल नेशनल कमिशन फोर धी प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) के चेरपर्सन शांतासिंहा ने मुझे न्यौता दिया था, नागपुर में कमिशन के हीयरींग में ऑब्झर्वर की हैसियत से उपस्थित रहने का. हीयरींग के लिए कमिशन की प्रोसीजर कुछ इस तरह की है: कमिशन सबसे पहले राज्य में एक एनजीओ को नोडल एजन्सी का काम करने के लिए चुनता है. यह नोडल एजन्सी अन्य एनजीओ के साथ संकलन करके बाल अधिकार संबंधित शिकायतें इकठ्ठा करती है, एक खास तरह के फोर्मेट में केस स्टडीझ तैयार करती है और कमिशन को भेजती है. कमिशन शिकायतों के संदर्भ में संबंधित अधिकारीओं को समन्स भेजता है. हीयरींग की तारीख तय होती है, उस तारीख पर उपस्थित रहने के लिए फ़रीयादी को कहा जाता है और अधिकारी अपना पक्ष रखने के लिए आवश्यक काग़ज़ात लेकर हीयरींग में उपस्थित रहता है. हीयरींग बंद कमरे में नहीं होती. पांचसौ लोगों की उपस्थिति में फ़रीयादी अपनी शिकायत पेश करता है, कमिशन के सदस्य अधिकारी की कड़ी परीक्षा लेते है, उसे डांटते है और लोग उसे देखकर जब तालियां बजाते है, तब हमें लगता है कि यही वह लोकतंत्र है, जिसके लिए हम तडप रहे हैं. संबंधित फ़रीयाद को लेकर क्या कदम उठाये गए हैं, इसका ब्यौरा अधिकारी को देना पडता है, अगर उसने कोई कदम नहीं उठाया तो उसे तूरन्त वह उठाने की चेतावनी भी दी जाती है.

गुजरात में 10 मई, 2012 के दिन नेशनल ह्युमन राइट्स कमिशन (एनएचआरसी) ने सुबह गांधी लेबर संस्थान में और दोपहर एनेक्सी में जो कुछ किया, वह इस अर्थ में हीयरींग नहीं था. वह तो एक तरह का राजदरबार था. दलित कर्मशीलो-एनजीओवाले जिसमें आते हैं और दूसरे दिन टाइम्स ऑफ इन्डीया लिखता है, उस तरह अपना ह्रदय बहा देते है (Dalits poured their hearts out in hearing). भारत सरकार का इतना बडा कमिशन गुजरात में सिर्फ शिकायतें इकठ्ठा करने के लिए आता है और दूसरे दिन अधिकारीओं के साथ रखी गई मीटींग इतनी गुप्त होती है कि पत्रकारों को भी वहां से भगा दिया जाता है तो कमिशन ने गांधीनगर की हण्डी में मानव अधिकार का गुड तोडा वैसा ही हम कहेंगे. (किसी भी बात गुप्त तरीके से होती है, उसमें पारदर्शीता नहीं होती, तो हम गुजराती में कहते है, कुलडी मां गोळ भांग्यो) मुझे मेरा ह्रदय बहाने के लिए कमिशन के पास जाने की क्या जरूरत है? एक कविता लिखुंगा तो भी ह्रदय खाली हो जाएगा, उपर से समाज कल्याण का एवोर्ड भी मीलेगा. मगर मुझे न्याय चाहिए. कमिशन के पास अर्ध-न्यायिक सत्ता है, उसका उसे उपयोग करना है, नौटंकी नहीं करनी. एनेक्सी की मीटींग में मैंने कमिशन के चेरपर्सन तथा सदस्यों के समक्ष यह बात रखी थी, जिसका उनके पास कोई जवाब नहीं था.

एनसीपीआर के हीयरींग में वाकई में दम होता है. इसी वजह से तो चार महिना पहले एनसीपीसीआर का हीयरींग स्थगित कराने के लिए श्रम विभाग के सचिव पनीरवेल, मुख्य सचिव जोती तथा समाज कल्याण मंत्री फकीरभाई वाघेला ने मेडम शांतासिंहा को पर्सनल लेटर्स लिखकर गिडगिडाकर हीयरींग बंद रखवाया था. तीनों के पत्र मेरे पास है. दुनिया के सामने तीसमारखां बनने का दिखावा करनेवाली गुजरात सरकार गुप्तरूप से कैसी याचनाएं करती है, इसके ये सुंदर, कलात्मक उदाहरण है.

कमिशन ने दूसरे दिन मोदी सरकार को जिस तरह से क्लीन चीट दी है, इससे यह साबित होता है कि कमिशन सिर्फ गुजरात के ही नहीं पूरे देश के दलितों को बेवकूफ बना रहा है. हमारा पूरे देश के दलितों से अनुरोध है कि आपके राज्य में कमिशन आने की तारीख अगर तय हो जाय तो तूरन्त कमिशन को एनसीपीसीआर के जैसा हीयरींग करने का अनुरोध करता हुआ मेइल, फेक्स, टेलीग्राम किजीए. और उसमें यह भी लिखिए की अगर कमिशन ऐसा हीयरींग करना नहीं चाहता तो उसे राज्य में आने की कोई जरूरत नहीं है. हम आपके राजदरबार में आकर आपको औचित्य देना नहीं चाहते. और दूसरा हम हमारे सभी सांसदो से भी अनुरोध करेंगे कि वे भी कमिशन को ऐसा हीयरींग करने का सुझाव देकर अपना अस्तित्व सार्थक करें, वर्ना वे भी इस्तीफा देकर अपने घर लौट सकते है. 

Tuesday, May 15, 2012

मोदी सरकार को क्लीन चीट देने की कवायत

नरेन्द्र मोदी सरकार को क्लीन चीट देने की कवायत

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एनएचआरसी) हीयरींग के नाम पर नौटंकी कर रहा है. आयोग ने गुजरात में जो किया वह हीयरींग नहीं है. आयोग हमें बेवकूफ बना रहा है. हीयरींग का मतलब है, एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें आयोग तमाम कम्प्लेन्ट्स इकठ्ठा करता है और उसके आधार पर संबंधित अधिकारियों (पुलीस अधिकारियों) को अपनी अर्ध-न्यायिक सत्ता का इस्तेमाल कर के समन्स भेजता है. ऐसी प्रक्रिया करने के बजाय यहां आयोग हीयरींग का ड्रामा करता है, जिसमें दलित कर्मशीलों तथा एनजीओवाले आते हैं, अपना गुस्सा निकालते हैं, दूसरे दिन अखबारों में रीपोर्ट आता है, और आयोग के चेरपर्सन गुजरात सरकार को क्लीन चीट देते हैं और एक हाइ प्रोफाइल ड्रामा का सुखद अंत आता है.

हम बडे दुख के साथ कहते है, मि. बालकृष्णन, यह जनतंत्र नहीं है.

Wednesday, May 9, 2012

कांसीराम और मायावती



कांसीरामजी को पहेली बार करीबन 1983-84 में मैंने अहमदाबाद के डॉ. अंबेडकर हॉल में सूना था. बामसेफ का संमेलन था. बबलदास चावडा और विश्राम परमार उस कार्यक्रम के आयोजक थे. उस वक्त बीएसपी का गठन नहीं हुआ था, मगर बहुत जल्द होनेवाला था. "कांसीराम जैसे नेता अपने झोले में अपनी पार्टी का लेटरपेड साथ में  लेकर घुमते हैं", ऐसी कमेन्ट वासुदेव महेता ने संदेश अखबार में की थी वह मुझे याद है. उस वक्त कांसीरामजी के साथ जो लोग थे, आज उनको कोई नहीं पहचानता. कांसीरामजी पूरी रात पोस्टर लगाकर कालुपुर रेल्वे पुल के नीचे अखबारों की पथारी करके सो गए थे तब उनके साथ मुकेश वोरा थे, उस वोरा को अब कौन पहचानता है? कौन जानता है, भरूच के उस महेश वाघेला को जो तीस साल पहले साहब के लिए बनियान खरीद लिया करते थे?

दुनिया सत्ता की दिवानी है. गुजरात में हमने देखा है. चुनाव के वक्त बीएसपी की ओफीस पर टीकट के भूखे लोगों की लंगार लग जाती है. लगता है, जैसे पार्टी गुजरात की सभी 182 सीटें जीत जाएगी. चुनाव के बाद वो मिशन की बात करनेवाले कौन सा कमिशन लेने कहां खो जाते है किसी को पता नहीं चलता. बात दरअसल यह है कि सभी लोग मायावती बनना चाहते है, किसी को कांसीराम नहीं बनना है. क्योंकि मायावती का मतलब है सत्ता. कांसीरामजी का मतलब है नींव की इंट.

कांसीराम बनना आसान नहीं है, क्योंकि कांसीराम बनने का मतलब है, नींव की इंट बनना. कांसीराम का मतलब है, पूरी जिंदगी का समर्पण. कांसीराम का मतलब है, सायकल रैलियां, अविरत लोकसंपर्क, जनजागृति, संगठन की अहेमियत और लोगों के प्रति निष्ठा. नब्बे प्रतिशत लोग रीझल्ट देखते है, प्रक्रिया नहीं देखते. एक आदमी ने अपनी पूरी जिंदगी की राजकीय, सामाजिक, सांगठनिक पूंजी एक अनजान लडकी को सौंप दी और उसे दलितों के इतिहास का एक गौरवपूर्ण प्रकरण लिखने का अवसर दिया.

अब वह अवसर निकल गया है. अगर आप फिर से इतिहास दोहराना चाहते हैं, तो आप को कांसीराम चाहिए. देश के हर राज्य में एक कांसीराम चाहिए. क्योंकि कांसीरामजी होंगे, तो मायावती पैदा होगी. नींव की इंट होगी तो इमारत बनेगी. अफसोस की बात यह है कि हम कांसीराम नहीं बनना चाहते. हम में से कोई भी आदमी पेरेलीसीस से मरना नहीं चाहता.